बैगाओं की जड़ी-बूटियों में है सिकलसेल व एनीमिया का इलाज, अब सीयू करेगा प्रमाणित

बैगाओं की जड़ी-बूटियों में है सिकलसेल व एनीमिया का इलाज, अब सीयू करेगा प्रमाणित


छत्तीसगढ़ का एकमात्र केंद्रीय विश्वविद्यालय होने के नाते गुरु घासीदास विश्वविद्यालय सिकलसेल और एनीमिया के उन्मूलन के प्रति पूरी तरह समर्पित है। इसके अंतर्गत स्थानीय बैगा समुदाय द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली पारंपरिक औषधियों का गहन वैज्ञानिक अध्ययन किया जाएगा। इस शोध का उद्देश्य पारंपरिक जड़ी-बूटियों के आधार पर प्रभावी दवाएं तैयार करना है, जो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध और प्रमाणित होंगी।

छत्तीसगढ़ के जनजातीय समुदायों विशेषकर बैगा समुदाय के वैद्य अपनी जड़ी-बूटियों के माध्यम से सिकलसेल व एनीमिया जैसी गंभीर बीमारियों का इलाज परंपरागत तरीके से करते आ रहे हैं। अब इनकी इस चिकित्सा पद्धति को मान्यता देने और सत्यापित करने का काम सीयू (गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय) बिलासपुर करने जा रहा है।

सीयू की पहल पर ही देशभर के चुनिंदा विज्ञानी व शोधार्थी यहां पहुंचेंगे और जड़ी-बूटियों से लेकर इलाज की पूरी प्रक्रिया पर गहन शोध करेंगे। इस उच्च स्तरीय शोध के लिए भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) की ओर से विश्वविद्यालय को 8.57 करोड़ रुपये का अनुदान मिला है।

पर्स कार्यक्रम के तहत अनुदान प्राप्त हुआ

यह अनुदान पर्स (प्रमोशन आफ यूनिवर्सिटी रिसर्च एंड साइंटिफिक एक्सीलेंस) कार्यक्रम 2024 के अंतर्गत प्रदान किया गया है। इसके तहत द्वारा सिकलसेल रोग के इलाज में प्रयुक्त पारंपरिक औषधियों की डिजाइन, विकास और वैधता पर शोध किया जाएगा। गुरु घासीदास विश्वविद्यालय देश के उन नौ संस्थानों में से एक है, जिसे पर्स कार्यक्रम के अंतर्गत यह अनुदान प्राप्त हुआ है।

यह परियोजना आने वाले चार वर्षों में पूरे क्षेत्र में स्वास्थ्य और अनुसंधान के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित होगी। देशभर से विज्ञानी और शोधार्थी यहां आकर शोध कार्य कर पाएंगे। कुलपति प्रो. आलोक कुमार चक्रवाल ने इसे विश्वविद्यालय के लिए एक ऐतिहासिक अवसर बताया।

बैगा समुदाय के वैद्यों की बड़ी भूमिका

कुलपति प्रो.चक्रवाल की मानें तो इस परियोजना के माध्यम से विश्वविद्यालय छत्तीसगढ़ के जनजातीय क्षेत्रों में सिकलसेल की बीमारी की व्यापकता का पता लगाएगा। इसके साथ ही बैगा समुदाय के वैद्यों द्वारा प्रयुक्त जड़ी-बूटियों की जांच कर उनके औषधीय गुणों की पहचान की जाएगी। साथ ही उनकी वैधता को प्रमाणित किया जाएगा।

naidunia_image

सिकलसेल उन्मूलन के लिए लक्ष्य

यह पहल छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य विभाग और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के साथ मिलकर सिकलसेल उन्मूलन के लक्ष्य को प्राप्त करने में मददगार होगी। भारत सरकार ने वर्ष 2047 तक सिकलसेल एनीमिया के उन्मूलन का लक्ष्य निर्धारित किया है और यह परियोजना उस लक्ष्य की ओर एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगी।

आधुनिक उपकरणों से अनुसंधान

अनुदान राशि का उपयोग अनुसंधान के लिए आधुनिक उपकरणों की खरीद में किया जाएगा। इनमें चार सौ मेगाहर्ट्ज न्यूक्लियर मैग्नेटिक रिसोनेंस (एनएमआर), डीएनए सीक्वेंसर, एफटीआइआर, एचपीएलसी, एक्सीलरेटेड साल्वेंट एक्सट्रेक्टर जैसे अत्याधुनिक उपकरण शामिल हैं। इन उपकरणों से शोध में सटीकता और गुणवत्ता बढ़ेगी, जिससे प्रभावी औषधीय समाधान विकसित किए जा सकेंगे।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ेगा योगदान

गुरु घासीदास विश्वविद्यालय की यह पहल न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि देश और दुनिया के अन्य जनजातीय समूहों के लिए भी वरदान साबित हो सकती है। जनजातीय बाहुल्य क्षेत्रों में सिकलसेल एनीमिया एक गंभीर समस्या है और इस परियोजना का फोकस उन समुदायों में इस बीमारी का निदान और प्रबंधन करना है।

परियोजना के प्रमुख सहयोगी

इस परियोजना के समन्वयक प्रो. संतोष कुमार प्रजापति (वनस्पति विज्ञान विभाग), सह-समन्वयक प्रो. एलवीकेएस भास्कर (प्राणी शास्त्र विभाग) और डा. जय सिंह (शुद्ध एवं अनुप्रयुक्त भौतिकी विभाग) हैं। इस चार वर्षीय परियोजना का उद्देश्य अनुसंधान में नवीनता लाना और स्थानीय पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों का संरक्षण एवं संवर्धन करना है।